यह जगत परिवर्तनशील है यहाँ पर कुछ भी स्थिर नहीं है ,क्योंकि यह संसार “संसरति इति संसार : ” है अर्थात् यह संसार चलता रहता है ।यदि परिवर्तित नहीं होगा तो यह मृत हो जाएगा । हमें प्रतिपल यह बदलाव संसार की प्रत्येक वस्तु में देखने को मिलता है ।
वेदों में कहा गया है कि प्रकृति पूजनीय है । श्रद्धा भाव से इसकी पूजा करनी चाहिए ।वेदों में तो इसके लिए यज्ञ कर्म का विधान भी किया गया है ।
यह सृष्टि पंचतत्वों से निर्मित है पृथ्वी , जल ,अग्नि ,वायु और आकाश । ऊपरी तौर पर यदि देखें तो लगता है की ये सभी शांत तत्व हैं ।अपनी अपनी जगह पर स्थिर ही पड़ें हैं खड़े हैं ।लेकिन यह सोच मुझे उस वक़्त ग़लत लगी जब एक बार मैं अपने पुत्र के साथ कन्यकुमारी वग़ैरह भ्रमण के लिए गयी ।और वहाँ वह तो सागर में नहाने का आनंद ले रहा था । परंतु मैं तट पर बैठी उस सागर की उठती -गिरती लहरों का आनंद ले रही थी ।और उस आनंद में इतनी लीन हो गयी कि समय का भान ही नहीं हुआ। परन्तु बार-बार उठती गिरती लहरों के साथ मुझे एक शोर भी सुनायी देने लगा ,और एकाएक विचार कौंधा कि यह शोर तो कर्णकटु है मधुर , मनोहर और सुहावना नहीं है ।लहरों का करतब तो बहुत अच्छा परंतु उसके साथ का वह शोर भीतर तक भयभीत करा गया और मैंने तुरंत पुत्र से बाहर निकल आने को कहा ।
इस शोर को सुनने के बाद साथ ही एक विचार आया कि जल प्रकृति का एक तत्व है और शेष चार तत्व भी इसी तरह एकाएक साथ में याद हो आए । फिर गम्भीरता से सोचने लगी तो महसूस हुआ कि ये पाँचो तत्व अपने भीतर एक प्रलयंकारी क्षमता समेट कर रखते हैं ।यदि ये कुपित हो जायें तो मानव एक निरीह एवं तुच्छ प्राणी के समान ,इनकी प्रलयंकारी रौद्रता के सम्मुख हाथ जोड़े धीरज धरने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कर पाता । यही कारण रहा होगा कि अतीतक़ालीन संस्कृति के अमिट वेदों के पन्नों में प्रकृति की पूजा करने को कहा गया है ।
अभिप्राय यह है की प्रकृति को जीतना या उस पर विजय पाना सम्भव नहीं है ।अत : अपने जीवन के लिए जैसे उपयोगी हो वैसे समझ कर ही ,इसका सदुपयोग करना चाहिए ।ऐसी सोच से प्रकृति के क्रियान्वयन से हम केवल स्वयं को ही नहीं अपितु पूरे विश्व को सुखी ,सुरक्षित और ख़ुशहाल बना सकते हैं ।